Jan 12, 2016

एक जनाज़ा



बाहर सड़क से जनाज़ा निकल रहा था किसी का, अन्दर हम और महोतरमा प्याली चाय पी रहे थे
रविवार की ठण्ड सुबह पर अखबार परसा हुआ था, कभी सुर्खियाँ जीत रही थी तो कभी चुस्कियां

ज्यूँ बहार जयकारे तेज़ हो रहे थे, त्यूँ वो डूबा बिस्कुट नर्म हो रहा था
क्राइम न्यूज़ में इतनी मशगूल थे, कब टूट के गिर गया दिखा ही नहीं
दाँतों से ताली बजी तो ध्यान गया, कैसी ताक़त लगा रहे थे जनाज़े वाले
कोई गैरधर्मी सुने तो समझे, कहीं इनका राम मिथ्या तो नहीं
ख़ैर चौखट से जब संगत निकली, तो अखबार पटक बाहर हो लिए
ज़िन्दगी की औकात नहीं हमारे इधर, पर मरा डाकू भी प्रणामों पर झुलसता है

भूरी पालकी पर एक गठ्ठा सा था चादर से ढका, ऊपर गुलाब गेंदे बिछे थे
जुलूस को ताक कर देखा तो बस सफ़ेद मुंडे सर और झुर्रियां दिखाई दी
पार्क के रिटायर्ड बुढ्ढे थे सब, जिनका दिन गप्पों और शाम पत्तों से गुज़रती थी
ज़रूर किसी वृद्ध का वक़्त रहा होगा सोच हम चिल्लाये ‘अरे कौन गुज़र गया’
एकाएक संगत थमी और लगी हमें ताड़ने, मानो मुर्दे की शिनाख़्त करने आए हों
एक जनाब चेहरे की शिकन लिए कपकपाती आवाज़ में रुआंसे से बोले
‘बाबू सुन कर तुम कहाँ मानोगे, यही कहना बुढ्ढे पगलाए गए हैं’
थोड़ा झुंझला कर हम धीमी आवाज़ में बोले, ‘लगता है कोई नजदीकी चल बसा बाबा

बाबा हमारे कंधे पे कापता हाथ रख कर फूट पडे
‘ये इंसानियत का जनाज़ा है बेटे, जाने कब से गायब थी, आज इसका क्रिया करम है’
यकीन न मानो तो अपने माँ-बाप से पूछना, ‘कब मरी मेरी इंसानियत’
और जनाज़ा नारे चिल्लाता बढ चला, राम का नाम शायद मिथ्या ही हो गया था…


Originally published here

Aug 31, 2015

मुझे लगा माँ हमेशा होगी


मुझे लगा माँ हमेशा होगी

पहली बार आँख खुली तो देखा था
रोती भी थी मुस्कुराती भी
शायद तभी समझ गयी थी मैं
सबसे ज़्यादा प्यार तुम ही दोगी
मुझे लगा माँ हमेशा होगी

डाट मार प्यार दुलार
घोट पिलाया शिष्टा व्यवहार
कुछ गलत करने से पहले झिझकती हूँ
माँ जानेगी तो क्या सोचेगी
मुझे लगा माँ हमेशा होगी

पिताजी के नाम से डराती
पर कोई गुस्साए तो ढाल बन जाती
आज भी भिड़ जाती हूँ बिन सोचे
दिल में आता है माँ संभाल लेगी
मुझे लगा माँ हमेशा होगी

बचपन में पकवान, फिर जेब खर्च
जवानी में सलाह और उदासीन फासले
शादी में तो मानो घर ही लुटायेगी
मैं बहसी भी थी, 'और कितना दोगी'
मुझे लगा माँ हमेशा होगी

मैं बढ़ती गई वो ढ़लती गयी
कभी सर, कभी कमर, कभी घुटने,
तस्वीरों से बूझा उसका बुढ़ापा 
पहले देख लेती तो शायद तैयार होती
मुझे लगा माँ हमेशा होगी

अब माँ नहीं रही 
कभी उसे साड़ियों में सूंघती हूँ 
कभी पुराने वीडियों में ढूंढती हूँ 
चलो जहाँ भी हो तुम, अब दुःख न सहोगी 
मेरे लिए तो माँ... तुम हमेशा होगी 

Aug 21, 2015

पुरानी नदी



तब यहाँ एक नदी बहा करती थी 
वो गाँव से गुज़रती थी

धुप से झुलसे किसान कुछ चुल्लू छीटें ले जाते    
कभी बाजरा कभी ऊख, कभी बोते कभी गिराते
उन उबलती देहों को शीतल रखा करती थी 
तब यहाँ एक नदी बहा करती थी

घूंघट गेरे सब लुगाई पनघट पे जमड़ती
निंदारस, हास्य, दुःख, विनोद बन बन करती
सबके सपने गपोड़ें सुन अंदर छुपा रखती थी
तब यहाँ एक नदी बहा करती थी

अकसर गोधूलि पीपल तले अल्हड प्रेम उमड़ते  
कभी आखें टकरती तो कभी कंधे रगड़ते
उन टप्पे खाते कंकड़ों को लुका ले चलती थी 
तब यहाँ एक नदी बहा करती थी

उस किनारे लोग अक्सर अपने मुर्दे जलाते
कभी मइया तो कभी बाबा के कपार फोड़े जाते 
जड़ को डुबकी लगवा चेतन संग सिसकती थी
तब यहाँ एक नदी बहा करती थी

उस तरफ साहूकार की बहू-पालकी उतरी
और यहाँ बह मरी थी बिमला चमारिन की पुत्री 
हर किस्से कहानी की तो सूत्राधार बनती थी 
तब यहाँ एक नदी बहा करती थी

फिर सड़क हुई, सहर हुआ, दोनों ओर ईटों के पिंजरे 
रस्ते चौड़े हो चले, जत्थे हुए संकरे
छिछली होकर सूख चली, पहले बड़ी अकड़ती थी
सुनते हैं, तब यहाँ एक नदी बहा करती थी

वो गाँव से गुजरती थी

Oct 26, 2014

Unsung Lovers: A Tribute



Oceans may part and skies may fall
But mediocre poets will always crawl
Till destiny makes them meet their lover
Or stumble and slither to their maker

Some fit the bill, some cut it just
Other succumb to sloth or lust
But most go unheard, die in anonymity
Often struggle - until death - with mediocrity

But here’s a tribute to the unsung heroes
Who had but there heart and soul for the curios
That rich could buy to the girls of the city
And own their hearts with doe and ditty

Here’s a verse that calls all those
Who secretly wrote the pledged prose
Who revered a woman like there’s no tomorrow
Yet compromised, and embraced the sorrow

That’s a part of them, innate inseparable
Till today from the vows through pigeons till cable
And that will not be known to the world, as
With their grave was buried their sacred word

The dystopian world where they lived
With their beloved when reality cribbed
Where love won and the world lost
Where sorrows accrued as the morning frost

Where wealth was measured in emotion
And disarming lovers decreed against commotion
That world alas couldn’t last
As reality ascertained its grip, jolly fast

Will never return, that jilted lover
The life of his beloved will see him hover
When she’s anxious or dwindles on stage
When the essence of marriage seems too vague

When that abstract instinct seem so real
And reality of relation, becomes surreal
Yet bliss won’t resume and sorrows won’t stall
Until oceans part… and skies fall.

~AbhishekM

Jul 9, 2014

सावन के वो सत्तर दिन



वर्षा ऋतू आ ही गई, समाचार सुबह चीख रहे थे
जुलाई आधा बीत चूका, हम पहली बार भीग रहे थे
आज खिसिया गए ये बादल, बचपन में बड़ा लुभाते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब सही समय पर आते थे।

जौ, गेहूं, सरसों की फसलें कट जाती थी सही समय
मेला बाजार बिकती थी, पर धन से ऊपर था प्रणय
लौट किसान के सुखें कंठ जब गीत खरीफ के गाते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब सही समय पर आते थे।

आम के पेड़ों पर अनगिनत सूरज दमकते थे
नीचे बैठ जब ताकते, मुँह खुला, दीदे चमकते थे
शाम ढलते ढलते दो चार तो गिर जाते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब सही समय पर आते थे।

किस डाल से झूला बंधेगा शाम तक होता था ये चर्चा
फसलों से ऊंचा उग जाता फरमाइशों का मामूली पर्चा
पर किवाड़ के अंदर खेले खेल कभी हमें न भाते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब सही समय पर आते थे।

कुछ तला चटपटा खाने को हर शाम मन मचलता था
कपड़ो पर कीचड तो उन दिनों भी उछलता था
पर मोटर के पहिये नहीं दोस्त छपक के आते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब.…


~ अभिषेक मिश्रा