Jan 28, 2013

और सर्कस अब जा रहा है


उन जानवरों और कलाकारों का अब तबादला होने जा रहा है
मजदूरों का वो जत्था लग कर पूरा ढाचा गिरा रहा है
तम्बू वाले उस चौड़े मैदान में सुनते हैं कोई नया माल बना रहा है
देखो सर्कस जा रहा है

उदबिलाव की किलकारियों पर दर्शको की तालियाँ
लाउडस्पीकर पर बजती धुन और कहानियां
नहीं गूंजेगी अब क्यूंकि कुछ और हमें लुभा रहा है
देखो सर्कस जा रहा है

बच्चे नादां तो शायद अब भी है पर खिलौने बदल गए हैं
पिताजी से ज़िद करने के पैमाने बदल गए हैं
वो अल्हड बेफिक्र ढंग रंग फीका पड़ता जा रहा है
देखो सर्कस जा रहा है

वो दुर्लभ बाघ और महेंगे हाथी अब कौन जुटा पा रहा था
रंगीन चेहरे वाला वो नाटा जोकर अब कहाँ गुदगुदा पा रहा था
और इस कलाबाज़ के करतबों से अब खरचा थोड़े ही चल पा रहा था
सर्कस तो बहुत पहले से जा रहा था

अब मोबाइल से उठता हैं दिन और टीवी पर सोती है रात
जब भगवान् तक की दरकार नहीं, फिर जोकर की क्या बिसात
पादरी और मदारी से अब समाज पीछा जो छुडा रहा है
और इस सब में, सर्कस जा रहा है |
~अभिषेक मिश्रा
Image Courtesy: Souletric


3 comments:

  1. The pathos you have been able to capture is brilliant!

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  2. This comment has been removed by a blog administrator.

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