कल रात एक जागरण देखा। दरअसल उसे जागरण नहीं चौकी कहते हैं। जागरण तो पूरी पूरी रात होता है पर चौकी रात दस या ग्यारह तक सिमट जाती है। ख़ैर, ये चौकी किसी पार्क या टेंट-गड़े मैदान में नहीं पर एक बढ़िया बैंक्वेट हाल में थी। और कुर्ता-पायजामा सिर्फ घर के मुखिया ने पहना था, डिज़ाइनर।
चौकी शुरू हुई। भक्ति के नाम पर ढोंग चल रहा था। मेहमान श्रद्धा का ढोंग कर रहे थे। मेज़बान इश्वर को धन्यवाद करने का ढोंग कर रहा था। और मंडली के गायक इश्वर में लीन होने का ढोंग। गणेश आरती और कुछ भड़कीले भजन गाने के बाद बालीवुड के गानों को पलटा कर माइक पर चिल्लाया जा रहा था। सर पे लाल चुन्नी लपेटे गायक महाशय ने 'चप्पा चप्पा चरखा चले' को मरोड़ कर 'शिव तेरी जोत जले' बना दिया था। जैसे की ये बहुत न हो, तीन भेंटों के बाद गायक, और मेज़बान की बीवी ने लोगों को मंच पर बुला कर नचाना शुरू करवा दिया।
जिन्हे आनंदमयी और बेसोच ठुमके होना चाहिए था, वो सोची-समझी भड़कीली कूदियाँ हो चली थी। गायक का माइक धीमा कर ढोलक और कांगो की आवाज़ बड़ा दी गयी थी। मेज़बान का एक करीबी रिश्तेदार तो ऊपर चढ़ कर हनुमान और कृष्ण के बीच में जा कर मटकने लगा। तभी एक मोटी आंटी स्टेज पर आई और पचास रुपये के करारे नोट से उसकी नज़र उतारने लगी। किसी को ठाकुर या श्रीराम की नज़र उतरना ज़रूरी नहीं लगा।
नीचे बैठे 'भक्तों' के बीच वो छोटे वाले समोसे और गोबी के पकोडे ऐसे घुमाए जा रहे थे जैसे रामचरितमानस के पाठ में सौंफ और मिश्री घुमती हो। किसी बच्चे ने रो कर फरमाईश करी तो बाद में सफ़ेद, संतरी और काली कोल्ड-ड्रिंक भी प्लास्टिक के गिलासों में पेश हो गयी।
यहाँ गायक के साथ कोई भजन नहीं गा रहा था। और गाता भी कैसे? मोबाइल फ़ोन, बच्चे, समोसों और गप्पों से फुर्सत कहाँ मिल रही थी किसी को। ख़ैर जैसे तैसे अरदास और आरती का समय आया। किसी बुज़ुर्ग ने एक भजन गाने की इच्छा कही तो मेज़बान और कुछ आदमियों ने उसे चुप करवा दिया, क्यूंकि मेहमानों को भूख लग रही थी। अरदास से पहले मंडली के गायक ने सबको कुछ नोट निकल कर 'माता' के चरणों में समर्पित करने को कहा। ऐसा करने से - इन महाशय के अनुसार - आय में वृद्धि होगी। और देखते ही देखते एक और बड़ा थाल पचास सौ और पांचसौ के नोटों से भर गया। आरती एक तीसरे थाल में हुई और अंत तक वो भी दस बीस पचास और एक आध सौ के नोटों से भर गया था। माता झोलियाँ तो भरती है पर सिर्फ उनकी जो उसकी मूरत के आगे लगी थालियाँ भरते हैं।
गिटार, ड्रमस और माइक की बदौलत आरती पूरी हुई। फिर गद्दे समेट कर उधर टेबल बिछाई और उस पर अंडे वाला केक काटा गया और सब ने भर भर के खाया। उसके बाद खान शुरू हुआ और सारे भूखे भक्त दाल मखनी, छोले और पनीर पर टूट पडे। वो नज़र-उतारने-वाली-मोटी-आंटी अपने दामाद से कह रही थी भल्ले बहुत स्वादिष्ट हैं, ज़रूर खाना।
उसके बाद रुकने का न मतलब था और न हिम्मत सो हम रवाना हो लिए। घर आते हुए रस्ते में एक अधनंगा आदमी फूटपाथ पर सो रहा था, बगल में खडाऊ और एक लोटा रखा था। गाडी पास से निकली तो देखा बूढा साधू था। ज़रूर जवानी में जागरण में पैसे नहीं चड़ाए होंगे मूर्ख ने।
~अभिषेक मिश्रा