Jul 9, 2014

सावन के वो सत्तर दिन



वर्षा ऋतू आ ही गई, समाचार सुबह चीख रहे थे
जुलाई आधा बीत चूका, हम पहली बार भीग रहे थे
आज खिसिया गए ये बादल, बचपन में बड़ा लुभाते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब सही समय पर आते थे।

जौ, गेहूं, सरसों की फसलें कट जाती थी सही समय
मेला बाजार बिकती थी, पर धन से ऊपर था प्रणय
लौट किसान के सुखें कंठ जब गीत खरीफ के गाते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब सही समय पर आते थे।

आम के पेड़ों पर अनगिनत सूरज दमकते थे
नीचे बैठ जब ताकते, मुँह खुला, दीदे चमकते थे
शाम ढलते ढलते दो चार तो गिर जाते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब सही समय पर आते थे।

किस डाल से झूला बंधेगा शाम तक होता था ये चर्चा
फसलों से ऊंचा उग जाता फरमाइशों का मामूली पर्चा
पर किवाड़ के अंदर खेले खेल कभी हमें न भाते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब सही समय पर आते थे।

कुछ तला चटपटा खाने को हर शाम मन मचलता था
कपड़ो पर कीचड तो उन दिनों भी उछलता था
पर मोटर के पहिये नहीं दोस्त छपक के आते थे
सावन के वो सत्तर दिन तब.…


~ अभिषेक मिश्रा

5 comments:

  1. आज की इस कौतूहल में, भूल गये हम वो बिसरे गीत,
    सावन के वो सत्तर ना जाने कब आ गये और ना जाने कब गये बीत.

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  2. This is very lovely and warm to read ! Literally reminded me of my childhood days in motichur

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