Jul 26, 2016

वो पांच का सिक्का



कल ही की तो याद है
जब गुमा था वो पांच का सिक्का
नीली नेकर थी स्कूल की
एक जेब में सेल वाली हरी पत्ती थी
कुछ गाती थी बटन दबाने पर
बरसों बाद पता चला सिम्फनी थी बीथोवेन की
और दूसरी जेब में था
वो चमकदार गोल भारी सिक्का

आधी छुट्टी में कैंटीन की चिल्लाती कतार में
जेब में हाथ डाला
तो मुठ्ठी में कुछ नीले रेशे कैद हुए
आस्तीन पलट के, झंझोड़ के झांका
पर सिक्का फरार था

आसुओं का सैलाब फूटना तो चाहता था
पर लाल नथुनों ने थाम लिया
दोस्तों के समोसे और खस्ता दिख रहे थे
और ब्रेडपकोड़े शायद ज़्यादा करारे थे आज

बाइस बरस हो चले हैं
पर लगता है कल ही की बात है
पुरानी डायरी में जब लिखी थी
अल्हड़ लिखावट में उस गीले फलसफे पर
अपार दुःख और भूख की ये कहानी

वो सिक्का न खोता तो दो समोसे और मिल जाते
पर शायद...
वो पहली कुल्हाड़ी थी
एक लेखक तराशने की कोशिश में

मैं नहीं चाहता तुम कभी वापस मिलो
सड़क पर कुछ चमकता है तो आँखें फेर लेता हूँ
डर है तुम्हे इस जेब में डाला
तो उधर से कहीं शायरी न गिर जाए

अपनी कीमत से बहुत बढ़कर है
वो चमकदार गोल पांच का सिक्का

अभिषेक मिश्रा 

2 comments:

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