Feb 25, 2014

My message to the CIA, INTERPOL and POTUS, through my Inbox!

This might seem somewhat crazy. But everything Orwellian is! I just stumbled upon this old email (dated 5th July 2013) that I wrote to myself with most keywords that should set the alarm in the vigilante fraternity. This was probably when I read 1984 by George Orwell. Given the developments at the Indian and global political stage, this impulsive outburst looks quite a probable outcome, which is why I decided to post it.

Here’s the screenshot of the mail. The transcript follows.



































Transcript of the mail


Sub: Dear surveillance, President, CIA, NASA, Interpol, POTUS and whoever, wherever you are:

I know you're reading this mail. And I want to share an opinion with you...
Gradually but surely, all your intel and propaganda and conspiracies - clubbed with your allies and believers of these, scattered all over the world - will make our tiny planet such a cynical goblet of mistrust and insecurity that people will get scared, then get cynical, then crazy, then mad and finally wild. It is then when they'll topple governments and their agencies. Let's not forget that the people working at the INSIDE are handful and only humans. So in times like I prophesize above, most of them they will default and join the masses.
And when this occurs on a global scale (countries will be short of colours for their revolutions), when governments defunct, agencies cease, judiciaries hang, people get mad and protectors join the crowd; I don't need to tell you what follows: Socialism.
In other words, your finest tactics are but pillars for resurrecting your most abhorred fear: Socialism.
If there are planets with life elsewhere, their beings are expected to get enlightened in their life cycle. Our earth is apparently a failed experiment but you are doing nothing to help the situation. 
Turning reality into propaganda (read terrorists, and anti-americans in general) and turning propaganda into reality (read global peace, conspiracies, diplomacy, growth and evolution) is going to be more fatal than you can imagine.
And when time comes to that, you won't have an enemy or oppressor with a face or name. There will be swarms of rebels, carrying sticks, stones, guns, grenades, bio-chemicals and whatnot) and wipe even the most potent army that stands before them. Recall France, Russia, India, Greeks, Romans, Aryans, Pandavs and many more examples of this. 
You may decide to bring harm to me (just another nobody) by an accident or probe or whatever covert means. But please understand I want you to prosper, by prospering your people and therefore I'm giving you a piece of my mind, and heart. Sovereignty and technology is a powerful blend, use it wisely. Because some earthlings do get enlightened in their lifetime.

End of mail

On second thoughts, I think it reads funny, went a tad too far. Or may be not !?

Sep 25, 2013

ड्रामा भक्ति का

कल रात एक जागरण देखा। दरअसल उसे जागरण नहीं चौकी कहते हैं। जागरण तो पूरी पूरी रात होता है पर चौकी रात दस या ग्यारह तक सिमट जाती है। ख़ैर, ये चौकी किसी पार्क या टेंट-गड़े मैदान में नहीं पर एक बढ़िया बैंक्वेट हाल में थी। और कुर्ता-पायजामा सिर्फ घर के मुखिया ने पहना था, डिज़ाइनर।

चौकी शुरू हुई। भक्ति के नाम पर ढोंग चल रहा था। मेहमान श्रद्धा का ढोंग कर रहे थे। मेज़बान इश्वर को धन्यवाद करने का ढोंग कर रहा था। और मंडली के गायक इश्वर में लीन होने का ढोंग। गणेश आरती और कुछ भड़कीले भजन गाने के बाद बालीवुड के गानों को पलटा कर माइक पर चिल्लाया जा रहा था। सर पे लाल चुन्नी लपेटे गायक महाशय ने 'चप्पा चप्पा चरखा चले' को मरोड़ कर 'शिव तेरी जोत जले' बना दिया था।  जैसे की ये बहुत न हो, तीन भेंटों के बाद गायक, और मेज़बान की बीवी ने लोगों को मंच पर बुला कर नचाना शुरू करवा दिया।

जिन्हे आनंदमयी और बेसोच ठुमके होना चाहिए था, वो सोची-समझी भड़कीली कूदियाँ हो चली थी। गायक का माइक धीमा कर ढोलक और कांगो की आवाज़ बड़ा दी गयी थी। मेज़बान का एक करीबी रिश्तेदार तो ऊपर चढ़ कर हनुमान और कृष्ण के बीच में जा कर मटकने लगा। तभी एक मोटी आंटी स्टेज पर आई और पचास रुपये के करारे नोट से उसकी नज़र उतारने लगी। किसी को ठाकुर या श्रीराम की नज़र उतरना ज़रूरी नहीं लगा।
http://www.vs1008.com/2012/11/swamis-talk-in-trayee-sessions-with.html


नीचे बैठे 'भक्तों' के बीच वो छोटे वाले समोसे और गोबी के पकोडे ऐसे घुमाए जा रहे थे जैसे रामचरितमानस के पाठ में सौंफ और मिश्री घुमती हो। किसी बच्चे ने रो कर फरमाईश करी तो बाद में सफ़ेद, संतरी और काली कोल्ड-ड्रिंक भी प्लास्टिक के गिलासों में पेश हो गयी।

यहाँ गायक के साथ कोई भजन नहीं गा रहा था। और गाता भी कैसे? मोबाइल फ़ोन, बच्चे, समोसों और गप्पों से फुर्सत कहाँ मिल रही थी किसी को। ख़ैर जैसे तैसे अरदास और आरती का समय आया। किसी बुज़ुर्ग ने एक भजन गाने की इच्छा कही तो मेज़बान और कुछ आदमियों ने उसे चुप करवा दिया, क्यूंकि मेहमानों को भूख लग रही थी। अरदास से पहले मंडली के गायक ने सबको कुछ नोट निकल कर 'माता' के चरणों में समर्पित करने को कहा। ऐसा करने से - इन महाशय के अनुसार - आय में वृद्धि होगी। और देखते ही देखते एक और बड़ा थाल पचास सौ और पांचसौ के नोटों से भर गया। आरती एक तीसरे थाल में हुई और अंत तक वो भी दस बीस पचास और एक आध सौ के नोटों से भर गया था। माता झोलियाँ तो भरती है पर सिर्फ उनकी जो उसकी मूरत के आगे लगी थालियाँ भरते हैं।

गिटार, ड्रमस और माइक की बदौलत आरती पूरी हुई। फिर गद्दे समेट कर उधर टेबल बिछाई और उस पर अंडे वाला केक काटा गया और सब ने भर भर के खाया। उसके बाद खान शुरू हुआ और सारे भूखे भक्त दाल मखनी, छोले और पनीर पर टूट पडे। वो नज़र-उतारने-वाली-मोटी-आंटी अपने दामाद से कह रही थी भल्ले बहुत स्वादिष्ट हैं, ज़रूर खाना।

उसके बाद रुकने का न मतलब था और न हिम्मत सो हम रवाना हो लिए।  घर आते हुए रस्ते में एक अधनंगा आदमी फूटपाथ पर सो रहा था, बगल में खडाऊ और एक लोटा रखा था। गाडी पास से निकली तो देखा बूढा साधू था। ज़रूर जवानी में जागरण में पैसे नहीं चड़ाए होंगे मूर्ख ने।
~अभिषेक मिश्रा

Jan 28, 2013

और सर्कस अब जा रहा है


उन जानवरों और कलाकारों का अब तबादला होने जा रहा है
मजदूरों का वो जत्था लग कर पूरा ढाचा गिरा रहा है
तम्बू वाले उस चौड़े मैदान में सुनते हैं कोई नया माल बना रहा है
देखो सर्कस जा रहा है

उदबिलाव की किलकारियों पर दर्शको की तालियाँ
लाउडस्पीकर पर बजती धुन और कहानियां
नहीं गूंजेगी अब क्यूंकि कुछ और हमें लुभा रहा है
देखो सर्कस जा रहा है

बच्चे नादां तो शायद अब भी है पर खिलौने बदल गए हैं
पिताजी से ज़िद करने के पैमाने बदल गए हैं
वो अल्हड बेफिक्र ढंग रंग फीका पड़ता जा रहा है
देखो सर्कस जा रहा है

वो दुर्लभ बाघ और महेंगे हाथी अब कौन जुटा पा रहा था
रंगीन चेहरे वाला वो नाटा जोकर अब कहाँ गुदगुदा पा रहा था
और इस कलाबाज़ के करतबों से अब खरचा थोड़े ही चल पा रहा था
सर्कस तो बहुत पहले से जा रहा था

अब मोबाइल से उठता हैं दिन और टीवी पर सोती है रात
जब भगवान् तक की दरकार नहीं, फिर जोकर की क्या बिसात
पादरी और मदारी से अब समाज पीछा जो छुडा रहा है
और इस सब में, सर्कस जा रहा है |
~अभिषेक मिश्रा
Image Courtesy: Souletric


Aug 16, 2012

अगर ये महिना छब्बीस का होता


हम बटुआ दिखाने पर यूँ न झिझकते
और नयी तनख्वाह को पूरा घर न तरसता
अगर ये महिना छब्बीस का होता

न होती वो जूते की और इक मरम्मत
और बेटे का बस्ता फिर सिलता न होता
अगर ये महिना छब्बीस का होता

वो बेसन के लड्डू और इक बार आते
वो टिक्की के ठेले पे रुकना फिर होता
अगर ये महिना छब्बीस का होता

पा जाती मां वो नयी पीली साड़ी
पिताजी का चश्मा नया बनता होता
अगर ये महिना छब्बीस का होता

उस पिकनिक को मुन्ना न बनाता बहाना
खिलौनों में बिटिया के नया भालू होता
अगर ये महिना छब्बीस का होता

ये सन्डे की शाम न गुजरती टीवी पर
फिलम के उस शो पर मन मसोसा न होता
अगर ये महिना छब्बीस का होता

उन पांच दिनों की मशक्क़त के चलते
चमन पर हमारे सफेदा ना होता
गर ये महिना....
छब्बीस का होता

Jun 5, 2011

An unsung eulogy


As the mighty rain has settled in her town
Creel on head, she’s out without frown
The fish are fresh, and if streets are dry
She’ll sell them to every passer by

The catch is small as wave was fierce
and her rotten net needed repairs
But those young drooling eyes don’t realise
that waiting and hoping will never suffice

For she too waited, fancying it’s a sham
that tsunami to which she lost her man
But hunger and misery broke her trance
For survival, she seized another chance

Her growing kids, her ageing face
her placebo of memories, her totem of rage
the potent gaze of her weary eyes
that was real beauty, now I realise

But the minced words of that enchanting sorceress
Who worked for them in her cramped fortress
When heard were full of chagrin and fears
If her young ones could tell trickery from tears

She wept noiselessly and never complained
The living-for dead- should not be refrained
Happiness, though fatherless, was their right
So widowed & vowed, she remarried her plight

That woman utopian on a stage dystopian
Performing her role, banal & vaudevillian
That shapeshifting figure doing her duty
Is my human version of real beauty...

~AbhishekM

You just read an unexaggerated account of a young fisherwoman I met on Andaman Archipelago in 2008. Having never forgotten her face and her story, I decided it was time she gets her tribute. Brooding as I wrote this, I can still imagine her with her creel, looking around with those unforgettable eyes, just as when I asked her which way to taxi, and our conversation began.

This post is participating in Indiblogger Real beauty contest started by Dove & Yahoo. You may vote for it if it meant you something. 

Apr 4, 2011

Ramacharitmanas: The lesser known facts

We all have somewhere heard of 'Ramcharitmanas', the epic story of Ramayana written by Tulsidas. Ramcharitmanas was adapted from ‘Ramayana’, the book with same story written in Sanskrit by Maharshi Valmiki. Valmiki (once a robber) is the sage in whose hermitage (Ashram) Ram’s wife Sita lived with her two children Lava and Kusha, after her husband (Lord Ram) abandoned her. Before I begin throwing light on the lesser known facts of Ramcharitmanas, let us understand how the story—whether fictional or real—was conceived and written, flanked with some more trivia.

Feb 9, 2011

Prayag: The land that calls millions, but why?


The Prologue

Even in that chilling cold, I am sure I saw a trickle of sweat on my Friend’s neck, as I heard that Saadhu screaming at me “Kya kar raha hai”. While he was pacing towards us, I couldn’t decide if we should pack the camera first or simply run away. Clad in his saffron dhoti, a blanket and bhasma (ash made by burning bones) on his forehead, the Sadhu paced a long walk from Sangam ghat to our position, which diminished some of his Anguish. “Kya karoge iska” he scowled at my friend. Amit meekly answered. “Kuch nahi, mujhey accha lagta hai bas.”


The Sadhu, moments before he saw us and got agitated.


Jan 28, 2011

Two people at a time

It was fine spring, a Saturday afternoon. Yet it was different than other holidays: without movies, without friends, without novels, without home. I was not in my room, not in a shopping mall, not in a movie seat, but in the waiting lounge of Saroj Hospital. Appearing marginally excited from outside, I knew I was severely overawed and praying within. On the other side of that hard stared door, a hoard of careful hands was working on a small womb to bring out a yet genderless child. Bhabhi was undergoing a Caesarean operation. Mom, dad, Bhaiya, his 3 friends, Bhabhi’s parents and I had two things in common: we were terrified, we were praying.
Shifting positions on same couch since last night, I was hungry, thirsty and sleep-deprived, yet attentive and praying. I stole a glance at mom and saw the same fear in her eyes that was in mine. There shouldn’t be another miscarriage. For better, she will deliver a living baby. For worse, this will be my second stillborn nephew/niece and probably the last attempted.

Jan 27, 2011

The Ghost on the moon

On my cosy cushion, moon in my vision

The world moves in circles, then your ghost encircles


Tips of my hair, my skin so fair

They rise in fear, it’s white from despair


This moon has a face, a legend of disgrace

That silhouette on window, I wish I could undo


Your eyes lurk and stare, to that mantle where

I’ve buried those links, my diary your cufflinks


But I’ve travelled too far, on feet and in my car

Those trees are rotten, those pillars forgotten


But where’s morning, why isn’t it dawning?

Oh moon deface, and return my sham grace

~AbhishekM

Dec 17, 2010

As I Die...

In flames I lie, resting staring at sky
while around me, my kin squint & cry
the harbour away confers light and sun
but skin of my eyes is already burnt

These tears around, these sighs profound
as my wooden pyre nears the ground
These sorrows ripple waves of moans
as fire and oil melt my bones

These wooden logs might deceive my age
my people believe, I was young for this stage
As these unfulfilled pledges yell
my roasted spine burns to dust & fell

My family & my love have emotions arose
as my thighs dissolve and logs depose
A son, a brother, a lover burns
along, the pyre of hope succumbs

And finally my head bursts open
seeing sockets of my eye, others would have frozen
but Sun is off harbour and no one’s present
and I burn, to dust of my reminiscent

~AbhishekM